Yogis Sena India

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साधक परिचय( शून्य से आत्म साक्षात्कार तक की आध्यात्मिक यात्रा )-
जन्म से पूर्व घटनाक्रम:-
                               मेरे पिताजी (श्री भूपाल सिंह) के हनुमान जी इष्ट देवता रहे हैं व हनुमानसिद्ध योगी श्री बाल किशन जी उनके गुरु थे मेरे जन्म से पूर्व माताजी पिताजी संतान प्राप्ति हेतु आशीर्वाद लेने उनके पास गए थे,तत्पश्चात मेरा जन्म हुआ(जैसा की पिताजी द्वारा बताया गया), समय-समय पर पिताजी गुरुजी बाल किशन जी महिमामंडन करते हुए घर में उनका अक्सर जिक्र किया करते थे। समय के साथ-साथ गुरुजी में मुझे असीम श्रद्धा उत्पन्न हुई व मुझ में हनुमान जी की आराधना व ध्यान करने की चेष्टा का उदय हुआ।

जन्म के बाद:-
                  दादाजी अध्यापक थे साथ ही सच्चरित्र उनके जीवन का विशेष अलंकार रहा।उन्हीं की हनुमान चालीसा से बचपन की किस अवस्था मेँ मैंने साधना शुरु की मुझे स्पष्ट ध्यान नहीं परंतु वह निश्चय ही वह उम्र रही होगी जब मैंने पढ़ना सीखा। उससे पहले दादाजी के साथ ही मैं संध्या के समय ध्यान मुद्रा में बैठ जाया करता था, जैसा कि अक्सर बच्चे बैठ जाया करते हैं। जल्द ही मुझे हनुमान जी का पूरा पाठ याद हो गया।स्कूल में गायत्री मंत्र के जप के साथ प्रार्थना का प्रारंभ होता था। प्रारंभिक शिक्षा कक्षा (एक से सात तक) ग्राम के ही विद्यालय “सरस्वती शिशु मंदिर” में हुई, जोकि आर्य समाज संस्था द्वारा संचालित था। वहाँ के प्रधानाचार्य (श्री महेंद्र सिंह सिरोही) बहुत ही नेक,अनुशासन प्रिय थे व संस्कार शिक्षा पर विशेष जोर रखते थे।अतः गायत्री मंत्र, भोजन मंत्र, वंदे मातरम, राष्ट्रगान व अन्य प्रार्थनाए याद करना पैर छूकर नमस्ते करना आदि अनिवार्य बातें थी।इसके बाद हनुमान चालीसा व गायत्री मंत्र का जाप मेरे लिए आनंद की बात थी जब भी अकेलापन मिलता यही दोनों बचपन में मेरे अकेलेपन के साथी थे। समय-समय पर सुबह शाम की प्रार्थना के अलावा भी गायत्री मंत्र व हनुमान चालीसा का जाप हो जाया करता था।परंतु इस में भी नियमितता  व अनियमितता का क्रम कुछ इस प्रकार चला कि दो-तीन महीने नियमित साधना,फिर दो-तीन महीने अनियमित,फिर 3 महीने नियमित 2 महीने से अनियमित, इसी क्रम में 4 महीने नियमित 2 महीने अनियमित, 5 महीने नियमित 1 महीने अनियमित, इस प्रकार जब-जब ईश्वर में विश्वास की कमी आती तब-तब साधना में अनियमितता आ जाती थी।धीरे-धीरे विश्वास प्रगाढ़ होता गया और नियमितता बढ़ती गई। बाल्य अवस्था का संस्मरण मुझे याद आ रहा है,मैं पांचवी कक्षा में था तब मैंने पहली बार अनजाने ही त्राटक क्रिया का अभ्यास प्रारंभ कर दिया था।वह आरंभिक त्राटक लेट कर बल्ब को टकटकी लगाकर देखने के रूप में था। त्राटक क्रिया का अभ्यास उसके से हानि लाभ से अपरिचित अनायास ही मैं किसी भी बिंदु के ऊपर,पुस्तक पर, काफी दिनों से देर तक टकटकी लगाकर देखने के रूप में खेल ही खेल कर रहा था फिर एक दिन मैंने अपनी बड़ी बहन को त्राटक प्रतियोगिता में आमंत्रित कर दिया और कहा देखते हैं, कौन अधिक देर तक बल्ब को बिना पलक झपकाए देखते रह सकता है।मेरा पूर्व का अभ्यास होने के कारण मैं जीत गया। इस घटना ने मुझे इसका अभ्यास करने के लिए और अधिक प्रेरित किया। फिर अनायास ही एक दिन पूजा करते हुए (सन 2002 में) मेरे मन में दीपक की लौ पर त्राटक करने का भाव मुखरित हुआ। इस प्रकार मैंने इतनी दृढ़तापूर्वक त्राटक करना प्रारंभ कर दिया,कि जब तक घी से पूर्ण भरा हुआ दिया स्वयं नहीं बुझ जाता था, तब तक मैं लगातार टकटकी लगाकर दीपक की लौ को देखता रहता था व उसके साथ साथ हनुमान चालीसा व गायत्री मंत्र का जाप भी करता रहता था।उन दिनों मेरी रुचि क्रिकेट खेलने में थी,तो मेरे खेल में अभूतपूर्व सुधार हुआ।इससे भी मुझे और अधिक त्राटक करने की प्रेरणा मिली।उन्हीं दिनों बड़ी बहन की सगाई हुई,जीजा जी योग विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे थे शादी से पूर्व ही मैं उनसे मिलने गया तो वह उस समय अपना दैनिक अध्ययन कर रहे थे। उनकी एक पुस्तक को मैंने खोला तो सर्वप्रथम त्राटक वाला पेज खुला। उस दिन मैंने जीवन में त्राटक शब्द पहली बार पढ़ा और यह जानकर कि यह योग की क्रिया है, जो कि मैं अनजाने ही दो-तीन घंटे रोजाना अभ्यास करता हूँ।रोमांचित हो उठा। त्राटक, ध्यान, समाधि तीनों विषय ही एक दूसरे से सम्बंधित हैं व त्राटक ध्यान और समाधि में किस प्रकार साधक हैं। यह जानकर तो मैं और भी अधिक रोमांचित हो उठा क्योंकि यदा कदा जीवन में समाधि के विषय में जब चर्चा सुनता था, तो समाधि शब्द मन में एक प्रचंड प्रश्न के रूप में उठता था। जैसे ही मुझे इस पुस्तक के माध्यम से पता लगा कि त्राटक ध्यान व समाधि योग की पढ़ाई का हिस्सा है,तो मैंने निश्चय कर लिया कि मुझे भी योग विज्ञान में ही शिक्षा ग्रहण करनी है।घर लौटने के बाद मेरा त्राटक अभ्यास और भी सतत् हो गया। क्योंकि, अब मुझे विश्वास हो गया था।कि, मैं जो भी कर रहा हूँ वह वास्तव में भी योग की एक दिव्य क्रिया है। धीरे धीरे आध्यात्मिक साहित्य में मेरी रुचि बढ़ने लगी समाचार पत्र पत्रिकाओं में जो भी अध्यात्मिक लेख होते उन्हें पढ़ना मेरी प्राथमिकता होती थी। एक दिन मैंने पढ़ा बिना अमल किए ज्ञान भार के समान होता है।उसके बाद मैंने योगासन, प्राणायाम, मंत्र जाप प्रारंभ कर दिया।साथ ही गुरुजी की महिमा का पिताजी अक्सर गुणगान किया करते थे, तो उनसे मिलने की प्रबल इच्छा के चलते उनके पास जा पहुंचा। वह गुरु जी से मेरी पहली मुलाकात थी।लोग वहां अपनी समस्याओं (आर्थिक, सामाजिक,पारिवारिक) व मनोकामनाएं लेकर जाते हैं और मेरे प्रथम संवाद के प्रथम बोल थे “गुरु जी मुझे योग करना है”।प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा मेहनत करोगे तो अवश्य हो जाएगा।साथ ही उनकी भभूत उन्होंने दी।उसके बाद मन मस्तिष्क में विचारों का सैलाब दौड़ने लगा।हर आध्यात्मिक विषय का विश्लेषण करने की बुद्धि का मानो उदय हो गया था। मैं क्या हूँ? प्रश्न प्रबल होता गया। उन्हीं दिनों पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के साहित्य के संपर्क में आया।उनकी प्रथम पुस्तक “मै कौन हूँ?” का अध्ययन किया व उस पर शत-प्रतिशत अमल करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया।अनायास ही गायत्री मंत्र के अनवरत जप का संकल्प मन में आया और शुरू भी कर दिया। सोते-जागते,भोजन करते हर समय गायत्री मंत्र का अनवरत जप मन में चलना प्रारंभ हो गया।साधना के अनुभव पहले आते तत्सम्बन्धी पुस्तक बाद में पढ़ता।जो भी मन में प्रश्न उठता किसी भी प्रकार से वह पुस्तक, न्यूज़ पेपर, पत्रिका मेरे समक्ष होती थी और वही पेज खुलता था, जिस पर मेरे मेरे प्रश्न का समाधान होता। शुरू में तो मुझे विश्वास नहीं हुआ परंतु जब यह घटना अनगिनत बार घट गई तो एहसास  हो गया कि,गुरुदेव इस रूप में मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं।मानो, मै जो कुछ भी साधना में कर रहा था, अपने साहित्य के माध्यम से इसकी पुष्टि कर रहे थे।साधना में प्रगति अति शीघ्रता से हो जा रही थी।गुरुदेव द्वारा वर्णित ध्यान विधि में वाह्य त्राटक,मध्य त्राटक, अंत त्राटक के क्रम में त्राटक साधना का विधान है। मैंने त्राटक के पूर्व अभ्यास के कारण ध्यान अंत त्राटक से शुरू किया।अंत त्राटक के स्थान पर दीपक की लौ का ध्यान करना होता है। जोकि, सहजता से लग गया। जैसा कि वर्णित है लो वाले स्थान पर 1 महीने के अभ्यास से ही खुजली, बुदबुदाहट, कम्पन आदि महसूस हो सकते हैं। ।।।।।।।।।

  ओंकार की ध्वनि को सुनकर अपने संपूर्ण प्राणों को हृदय में एकत्रित कर उस पवित्र ध्वनि को सुनते हुए शरीर से बाहर भ्रूमध्य से निकलने का ज्यों ही मैंने संकल्प किया! वैसे ही एक झटके के साथ मैं शरीर से बाहर निकल गया! उस समय ऐसा अनुभव हो रहा था मानो जैसे किसी अंधेरी सुरंग में मैं तेजी के साथ प्रवेश कर रहा हूं साथ ही उस सुरंग के दूसरे सिरे से ब्रह्मनाद की ध्वनि के साथ साथ एक तीव्र प्रकाश भी दिख रहा था। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे गुरु जी और माता जी दोनों ने मुझे अपनी संयुक्त अंजलि में ले रखा है और इस शरीर से बाहर निकलने के अनुभव को,ब्रह्मनाद के अनुभव को, वह मुझे किसी उच्च स्तरीय प्रयोजन के लिए तैयार करने के लिए वह स्वयं मुझे यह आत्मसाक्षात्कार का अनुभव करा रहे हैं। इस दौरान मैं “आत्म स्वरूप” अपने स्थूल शरीर से एक कंपन युक्त चमकदार तार रूपी किसी चेतन चीज से जुड़ा रहा कुछ समय बाहर रहने के बाद मन में जैसे ही संदेह व् भय पैदा हुआ कि कहीं मैं अपने शरीर से बाहर ही तो नहीं रह जाऊंगा! क्षण भर में पुनः एक झटके के साथ मैं शरीर में प्रविष्ट हो गया और उत्साहित रोमांचित हो उठा कि वास्तव में मैं अजर अमर अविनाशी हूं यह केवल शास्त्र में लिखी बात मात्र नहीं है यह वास्तव में सत्य है मेरे आनंद का ठिकाना नहीं था मानो मैंने अमृत पी लिया हो मैं मरूंगा नहीं! कितनी अच्छी बात है सोचने में! तो सोचो कितनी अच्छी बात लग रही होगी जानने में! इस प्रकार के विचारों का मन में उल्लास देखते ही बनता था।…..(पूरा पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें) 

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