यह कृति समर्पित उन सबको, जिनके भी हृदय में सेवा भाव रहा।
सेवा की गंगा बहाते रहे, ऐसा पावन प्रयास रहा।
जो भी सेवक थे,सेवक हैं, और सेवा का विस्तार किया।
पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण, उन पावन स्थल को, जहां भी उनका वास रहा।
यह कृति समर्पित उन सबको जिनके भी हृदय में सेवा भाव रहा।।1।।
यह समर्पण उन गुरुओं को (पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी व योगी बाल किशन जी), जिनने मुझ पर उपकार किया। जिनकी कृपा वह शक्तिपात से,मुझ में ध्यान बीज आगाज हुआ।
जिसने ऐसे बदला घटना-घटकों को, कि मुझे आत्मस्वरुप का ज्ञान हुआ। उन ऐसे योगी-सिद्ध व संयासी को, लक्ष्य जन का युग निर्माण रहा।
यह कृति समर्पित उन सबको, जिनके भी हृदय में सेवा भाव् रहा।।2।।
मैं आभारी उन अपनों (माताजी-श्रीमती कुसुम देवी व पिताजी-श्री भूपाल सिंह) का,जिन्हें था मै नन्हा नादान मिला।
उनके लालन-पालन का है यह बल, हृदय में सदगुण सम्मान रहा।
मैं आभारी उन संगी साथी (पत्नी- लक्ष्मी जी) सहपाठी का,जिनका प्रेम अपार मिला।
पत्रिका पुस्तक पत्रों का लेखन साधक, जिन का सहयोग उपकार रहा।
यह कृति समर्पित उन सबको, जिनके भी हृदय में सेवा भाव् रहा।।3।।
यह समर्पण आचार्य ओम ऋषि को, जिनका सदा आशीर्वाद रहा।
ऐसे प्रेरक हर सेवक को, जिनके जीवन का सेवा-श्रम श्रृंगार रहा।
उस 21 जून के योग दिवस को, जब योगमय सारा जहान रहा।
योग मंत्री (श्रीपद जी) के उस योगमंत्र को, जिससे विश्व हमें पहचान रहा। यह कृति समर्पित उन सबको, जिनके भी हृदय में सेवा भाव रहा।।4।।
(हर व्यक्ति के निर्माण में पूरे समाज का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष योगदान होता है अतः-)
मैं कृति हूँ आप सब के द्वारा कृत, मैं तो बस निर्माण रहा।
मैं निर्माण हूँ आप सबका फिर,यह (कृति) मेरा कैसे निर्माण रहा।
तो यह कृति है,आप सब के द्वारा ही कृत,ऐसा मेरा विश्वास रहा।
यह कृति समर्पित तुम सबको, क्योंकि यह सब तुम्हारा ही निर्माण रहा।
यह कृति समर्पित उन सबको जिनके भी हृदय में सेवा भाव रहा।।5।।
जो सबमें है(ब्रह्म-जो हर कण में है) सो मैं भी हूँ(सोअह्म्- ब्रम्ह स्वरुप आत्मा), पढ़कर (यह कृति) जिसका ऐसा निश्चल भाव् रहा।
परमार्थ (परसेवा) को ही स्वार्थ (स्वसेवा) मानेगा, ऐसा मेरा विश्वास रहा।
यह कृति समर्पित उन सबको जिनके भी हृदय में सेवा भाव रहा।।6।।
{ॐ श्रीराम}